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पाकिस्तान का सच

चाणक्य सेन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :105
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5475
आईएसबीएन :8170554950

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दूसरे मुक्ति आन्दोलन की लोकतांत्रिक कहानी...

Pakistan Ka Sach

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

1991 की फरवरी में बाँग्लादेश में हुए दूसरे मुक्ति आन्दोलन ने लोकतन्त्र की बहाली की। एकमात्र भूटान को छोड़कर तमाम दक्षिण एशियाई देशों में लोकतन्त्र का नया इतिहास शूरू हुआ।
बांग्लादेश के दूसरे मुक्ति आन्दोलन का प्रमुख नायक जनता थी—खासतौर पर छात्र और युवा समाज-राजनैतिक नेता शेख हसीना जावेद।
लोकतान्त्रिक शक्ति और उस नेता को मैं अपना यह उपन्यास विनम्र श्रद्धा के साथ समर्पित करता हूँ।

चाणक्य सेन

पाकिस्तान का सच
1


कहानी और उपन्यास की कोई एक खास सीमारेखा नहीं है। कहानी का पात्र बनने की योग्यता अगर युधिष्ठिर, अर्जुन और धृतराष्ट्र में है तो यह योग्यता किसी क्लर्क, दीवार या फिर घात लगाकर बैठे किसी शिकार या जासूस, पैड़-पौधे, पशु-पक्षी—यहाँ तक कि सपने में भी हो सकती है।
इस कहानी या उपन्यास के दो प्रधान चरित्र हैं पाकिस्तान और भारत। राष्ट्र एक व्यक्ति भी है ! हम लोग अक्सर कहते या पढ़ते या सुनते हैं, ‘‘भारत ने ऐसी घोषणा की है...’’ या फिर ‘‘पाकिस्तान ऐसा नहीं सोचता है...’’ या ‘‘अमरीका का यह मानना है..’’। कोई भी देश हो वह सिर्फ जमीन, जनता, राजनैतिक समाज, राष्ट्र, शासन, सत्ता व सेना वगैरह से नहीं जाना जाता। बल्कि उसकी अपनी विशिष्टता, उसका अपना चरित्र, नेशनल करैक्टर, राष्ट्रीय विचारधारा और राष्ट्रीय दृष्टिकोण भी होता है। ये सारे शब्द आजकल की दुनिया में परिचित शब्दावली हैं। आए दिन इनका इस्तेमाल होता रहता है।
इसकी और भी अधिक व्याख्या की जाए तो कहा जा सकता है कि देश यानी कन्ट्री, राष्ट्र यानी नेशन, सरकार यानी गवर्नमेन्ट—ये सब अलग-अलग व्यक्तित्व हैं; ये सभी अपनी-अपनी व्यावहारिक विशिष्टता से परिपूर्ण हैं। इसीलिए हम अकसर यह पाते हैं कि देश, राष्ट्र व सरकार से जुड़ते ही आदमी अनजाने में ही खुद को बदल लेता या खुद बदल जाता है। उसके तौर-तरीके, उसकी जुबान, उसकी मानसिकता, उसकी सोच सब कुछ बदल जाता है।

इसका दोष दुनिया को नहीं दिया जा सकता। पृथ्वी पर हरेक युग में राष्ट्र अपनी महिमा के चलते व्यक्ति-सत्ता से ऊपर रहता है। राष्ट्र के नायक, अधिनायक और सह-नायक भी राष्ट्र की महिमा से प्रभावित होते हैं। राष्ट्र की भाषा उसकी जुबान में जल्दी ही चढ़ जाती है। पहले की सारी स्मृतियाँ मन से सहज ही फिसल जाती हैं।
इसीलिए, दो राष्ट्रों को अपनी कहानी का नायक बनाने की अपनी कोशिश के लिए मैं माफी माँगने की जरूरत महसूस नहीं करता हूँ। मैं भारत का नागरिक हूँ। शोध व लेखन मेरा पेशा है। इसलिए मेरा भी अपना व्यक्तित्व व चरित्र है। अखबारों में मैं नियमित रूप से लिखता हूँ, सिर्फ इसलिए मैं पत्रकार नहीं हूँ। हालाँकि, वर्षों पहले पत्रकारिता ही मेरा पेशा था। इसीलिए ‘‘खबरों का शिकार’’ करना मेरे स्वभाव में जुड़ गया है। इसी के साथ मैंने अध्यापन-सामाजिक शोध पर ही अपना हाथ साधा है। इसी कारण मेरी राह शोधपरक, विश्लेषणपरक पत्रकारिता की ओर जाती है। तीसरे स्तर पर मैं उपन्यासकार हूँ। मेरी राह में कहानी एक पगडण्डी की तरह शामिल हो गई है। अपने इन तीनों स्तरों को साधने के लिए मैं अपने इस उपन्यास का ताना-बाना बुन रहा हूँ।

हाल ही में हुआ दस दिनों का मेरा पाकिस्तानी दौरा और उसकी पृष्ठभूमि मेरे इस उपन्यास की विषयवस्तु है। इस उपन्यास का प्रमुख नायक पाकिस्तान है और दूसरा भारत।
पाकिस्तान-भारत का एक बड़ा पड़ोसी राष्ट्र है। फिर भी दोनों एक-दूसरे से अपरिचित हैं। कुलदीप नैयर के शब्दों में, ‘‘डिस्टेन्ट नेवर’’ यानी ‘‘पास रहकर भी दूर हो ऐसा पड़ोसी।’’ अंग्रेजों ने भारतवर्ष को जोड़ा था। इस महानाटक में भारतवासियों की सक्रिय भूमिका कुछ खास नहीं थी।
जाते-जाते इन्हीं अंग्रेजों ने भारतवर्ष को बाँटा भी। इस तड़क-भड़क वाले नाटक में भारतवासियों की भूमिका खास थी। हमारे आधे दर्जन नेताओं ने आगे बढ़कर माउण्ट बेटन और मोहम्मद अली जिन्ना से हाथ मिलाया और भारत को दो भागों में बाँटकर पाकिस्तान को दूर का पड़ोसी, शत्रु पड़ोसी राष्ट्र बना दिया।

राजनैतिक इतिहास के छात्रों को मैं यह हमेशा याद रखने को कहूँगा कि साम्राज्य छोड़कर जाते-जाते अंग्रेजों ने तोड़कर बाँटने की नीति का इस्तेमाल दूसरे किसी उपनिवेश में करने की कोशिश नहीं की। हाल ही में, प्राध्यापक सुमित सरकार जैसे कुछ प्रमुख इतिहासकारों ने इस तथ्य को उजागर किया कि अखण्डित भारतवर्ष के नगरों-गाँवों में हिन्दू-मुसलमानों ने संगठित होकर जनान्दोलन में भाग लिया था। वहीं इस बात का भी संकेत मिलता है कि विशाल जनान्दोलन के साथ देश के दो टुकड़े कर बुर्जुआ राष्ट्र की स्थापना के लिए कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अंग्रेज प्रशासकों की तत्परता में इजाफा भी हुआ था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एशिया-अफ्रीका में विप्लव की जो आँधी चली, उससे भारतवर्ष को अलग रखने के लिए यह जरूरी हो गया था कि इस उपमहादेश को बुर्जुआ शासनतन्त्र की सीमा में घरकर रखा जाए। इसलिए अगर देश को तोड़कर बाँटना भी पड़े तो भी बुरा नहीं है।

एक नए इतिहासकार का, हाल ही का, शोध कहता है, हम लोग जो आम जनता की गिनती में हैं, इस तरह के भयावह बँटवारे में अपनी तरह से पूरी भूमिका निभा रहे थे। इस बँटवारे के पीछे अथवा केन्द्रबिन्दु में जिस नीति को आधार बनाया गया था उसे हम लोगों ने स्वीकृति दी थी। वह नीति थी पारस्परिक शत्रुता की, जबर्दस्त वैर की और अन्तहीन दुश्मनी की। यह नीति आज भी राज कर रही है राजनीतिज्ञ, सेना और बुद्धिजीवियों की मानसिकता में। परिवर्तन जो दीख रहा है वह सिर्फ एक स्तर पर है। दोनों देशों की आम जनता के मन में अब पहले-सा परम वैर-भाव नहीं है।
29 अप्रैल 1990 की बात है। लाहौर विमानबन्दर की औपचारिकता से फारिग होकर गाड़ी में बैठने और गाड़ी स्टार्ट करने के लगभग एक साथ पाकिस्तानी ड्राइवर ने पूछा, ‘‘आप क्या भारत से आ रहे हैं ?’’
मैंने कहा, ‘‘हाँ, दिल्ली से।’’

ड्राइवर पंजाबी था। बोला, ‘‘साहब, फिर जंग छिड़ेगी ?’’
मैंने कहा, ‘‘छिड़नी तो नहीं चाहिए। आपको क्या लगता है ?’’
ड्राइवर ने कहा, ‘‘साब, हम आम आदमी जंग नहीं चाहते हैं। हम तो अमन चाहते हैं, शान्ति चाहते हैं।’’
मैने कहा, ‘‘भारत की आम जनता भी यही चाहती है।’’
‘‘ठीक ही तो है, साब !’’ उसने कहा। उत्साह से फिर आगे बोला, ‘‘आम आदमी अमन चाहता है। दोस्ती, मैत्री चाहता है। अभी तीन महीने हुए मैं यू.पी. घूम आया हूँ। मेरे नातेवाले हैं मेरठ, आगरा और मुरादाबाद में। सब ठीक हैं। मजे में हैं। जंग शुरू हुई तो इण्डिया के मुसलमानों पर खतरा है। है न ! क्यों साब ?’’

‘‘सिर्फ मुसलमानों क्यों ? सभी को नुकसान होगा। जंग से किसी समस्या का समाधान नहीं होगा।’’
उत्साह मिला तो वह कहने लगा, ‘‘भारत-पाकिस्तान के बीच यातायात सम्बन्धी कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए। यह उचित नहीं। सारे रास्ते खुले होने चाहिए। वीसा की क्या जरूरत, कहिए ? हम सब तो एक ही हैं। भले ही देश दो हैं ! पर हम लोग तो एक हैं !’’

तीन साल पहले किसी पाकिस्तानी के मुँह से ऐसी बातें नहीं सुनाई पड़ती थीं। आज भी ऐसी बातें सुनाई नहीं पड़तीं पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्रविदों, फौजी अधिकारियों, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों के मुँह से। दो-एक अपवाद हो सकते हैं, लेकिन वे भी नियम को ही प्रमाणित करते हैं।
कितनी ही सहजता से, मानो किसी जन्मजात अभ्यास के तहत आदेश के अनुरूप भारत-पाकिस्तान एक-दूसरे से युद्ध स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा शुरू कर देते हैं।

तीन-तीन बार दोनों देशों के बीच जंग हो चुकी है। किसी-किसी के अनुसार साढ़े तीन बार। 1948 में कश्मीर को लेकर पहला युद्ध। 1965 के शुरूआती दौर में जूनागढ़ इलाके के लिए आधी लड़ाई। इसके बाद 1965 में सितम्बर में फिर से कश्मीर को लेकर एक बड़ी लड़ाई। फिर 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम में सक्रिय सहयोग देने में भारत-पाकिस्तान के बीच साढ़े तीन बार युद्ध का रिकार्ड है।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में पिछले पचास वर्षों में इजरायल-अरब को छोड़कर दूसरे किसी द्वय-शक्ति के बीच इतनी सारी लड़ाइयाँ नहीं हुईं। पर संयुक्त राष्ट्र अमरीका वियतनाम के साथ लगातार पच्चीस साल युद्ध करता रहा। 1980 के दशक में ईरान-ईराक लगातार नौ साल लड़ते रहे। इसी दशक में अफगानिस्तान में घुसपैठ करने वाली सोवियत सेना के साथ काबुल सेना ने अमरीका और दूसरे देशों के समर्थन में मुजाहिदीनों से लगातार दस साल लड़ाई की। एक साथ लगातार पच्चीस साल या दस साल के युद्ध और चालीस साल में रुक-कर साढ़े तीन लड़ाइयों के बीच कितना और कैसा फर्क है—पाठकों के मन में यह सवाल उठ ही सकता है।
फर्क यह है कि पहला एक तरह की आम बीमारी है और दूसरा ‘‘क्रॉनिक’’ बीमारी है। पहले का इलाज हो सकता है। सम्भव है निकट भविष्य में अफगानिस्तान और सोवियत रूस के बीच सम्बन्ध सुधर जाएँ। अफगानिस्तान का राजनैतिक रंग चाहे कुछ भी क्यों न हो।

इराक-ईरान के बीच भी पडो़सी सुलभ सम्बन्ध की पुनर्स्थापना की सम्भावना पर विचार किया जा सकता है। दोनों ही देशों में एक खास तरह का एकनायकत्व है। दोनों शासक अगर एक-दूसरे से हाथ मिलाने को तैयार हो जाएँ तो शान्ति व मैत्री का रास्ता खुल सकता है।
अमरीका भी इस सदी के आखिर तक वियतनाम के साथ, हो सकता है, एक सद्भाव का सम्बन्ध बना ले।
लेकिन भारत और पाकिस्तान ?
ये दोनों देश बीसवीं सदी के लगभग आधा गुजर जाने के बादसे एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य की भावना का जहर हृदय में समेटे हुए इक्कीसवीं सदी की ओर बढ़ रहे हैं। इनकी दुश्मनी लगता है चलेगी, चलेगी और चलती रहेगी। भारत के स्वर्गीय समाजवादी नेता भारत और पाकिस्तान के बीच एक कनफेडरेशन (परिसंघ) का सपना देखा करते थे।

9 मई, 1990। कराची का एक अपेक्षाकृत अभिजात इलाका। वरिष्ठ पत्रकार एन. वी. के घर शाम को आठ पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों का औपचारिक समावेश ‘‘गेट दुगेदर था’’। उपलक्ष्य था-भारत से आए एक लेखक से औपचारिक भेंट।
व्हिसकी का गिलास उठाए एक पाकिस्तानी बुद्धिजीवी ने हल्का घूँट भरा और एक लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा, ‘‘पता है, बीच-बीच में मैं क्या सोचता हूँ ? सोचता हूँ, अगर भारत का बँटवारा न होता ! तो हम लोग अगर एक देश के ही होते ! अगर ऐसा होता तो इण्डिया का प्रभाव, सम्मान और इसका रुतबा इस तेजी से बदलती दुनिया में कैसा होता, जरा सोचिए ! चीन से कहीं आधिक प्रभावशील होता-वन एण्ड यूनीइटेड इण्डिया।’’
दूसरे सात पाकिस्तानियों ने उनके इस वक्तव्य को शान्ति और तटस्थता के साथ सुना। उनमें से किसी ने अपनी कोई निजी राय जाहिर नहीं की।
मैंने देखा, आसमान के ठीक बीच में आधा चाँद चमक रहा था। यही चाँद उस समय दिल्ली के आसमान पर ठीक बीचोंबीच चमक रहा होगा।

2


1982 में पाकिस्तान जाने का दूसरा मौका मिला। इसके बाद तो मैं अब तक करीब चौदह बार पाकिस्तान गया। किसी-किसी साल तो एक नहीं, दो बार भी गया। और हर साल को एक बार जरूर। पहली बार 1980 में गया था। दिल्ली से नहीं। न्यूयॉर्क से। कुछेक अमरीकी अध्यापकों के साथ। एक अमरीकी संस्थान के निमन्त्रण पर।
उस देश से मुझे प्यार हो गया है। पाकिस्तान के लोग मुझे अच्छे लगे। उनका शारीरिक सौष्ठव भारतीयों की तुलना में अधिक आकर्षक है। आमतौर पर गठीला, मजबूत और ओजस्वी। पुरुषों के शारीरिक गठन में प्रादेशिक तारतम्य भी है। महिलाएँ खूबसूरत हैं पर उनकी अपनी जीवन-शैली की वजह से सम्भवतः अपेक्षाकृत कम उम्र में भी बदन भारी हो जाता है।

पाकिस्तानी ताम्बई से लेकर गौरवर्ण तक होते हैं। साथ ही कृशकाय लोग भी यहाँ देखने को मिल जाते हैं। आमतौर पर पाकिस्तानी प्रादेशिक वैचित्र्य के होते हैं—शरीर और आचरण दोनों से। पंजाबियों की तुलना में पठान सरल और समृद्ध होते हैं। उत्तर-पश्चिम सीमा के पठानों में भारतीय आगन्तुकों के लिए उष्ण, उदार और गर्मजोशी का भाव अधिक देखा जाता है। उस पर भी जाति के रूप में पाकिस्तानी भारतियों की तुलना में कहीं ज्यादा सम्वेदनशील, सरल और आतिथ्य के उदार होते हैं। कहीं अधिक सज्जन और विनीत विनम्र।
मुस्लिम तहजीब की नफासत, विनम्रता, गर्मजोशी और उदारता पाकिस्तान में अपनी चरम सीमा पर देखी जा सकती है। भारत में विशिष्टता कुछ-कुछ लखनऊ में देखी जा सकती है।
मुलाकात हुई नहीं कि पाकिस्तानी पहले गले लगते हैं और सीने से लगा लेते हैं। उनकी भद्रता, स्वागत और मेहमाननवाजी से साँसें बन्द-सी होने लगती हैं। भारत में इस तरह के स्वागत और आतिथ्य के आप अभ्यस्त होंगे ही नहीं।
आप होटल में हैं ?

पाकिस्तानी खुद गाड़ी चलाकर आएगा और आपको घर ले जाएगा। खिला-पिलाकर खुद होटल भी पहुँचा जाएगा। पहले ही परिचय में। बाजार गए तो आप कुछ भी खरीदेंगे, आगे बढ़कर उसकी रकम वह खुद चुकाएगा।
पाकिस्तानी बातें करना पसन्द करते हैं। स्वभाव से ये ‘‘एक्ट्रोवर्ट’’—बहिर्मुखी होते हैं। अपने बारे में बातें करना इन्हें बहुत अच्छा लगता है। अपनी सार्थकता की बातें। उन्हें दिखाना अच्छा लगता है वैभव। जीवन में अर्जित व उत्तराधिकारी के रूप में प्राप्त वैभव दिखाना। हम लोगों की तरह दबाने-छिपाने के ये आदी नहीं हैं। आत्म-प्रचार में इनमें कंजूसी नहीं है। यूँ तो आत्म-प्रचार में हम भारतीय पीछे नहीं हैं। पर हमारे आत्म-प्रचार में विज्ञापन-कम्पनी की-सी दक्षता होती है। पाकिस्तानी आत्म-प्रचार में सरलता होती है। जीवन का उपभोग करना जानते हैं ये। उनका आत्म-प्रचार जीवन-प्रचार है।

मैं 1982 के सितम्बर में दिल्ली से उड़कर लाहौर पहुँचा। चालीस मिनट की उड़ान। प्लेन उड़ने से पहले ही जैसे उतर गया। पी आई-पाकिस्तानी इन्टरनेशनल एअरलाइन्स का बोइंग 373। एअर होस्टेज का सिर दुपट्टे से ढँका। एअर इण्डिया होस्टेज की तुलना करने पर ये कुछ-कुछ सिमटी-सी। इसलिए विनम्र। पुरुष ‘‘स्टूयर्ड’’ ही आमतौर पर सर्विस देते हैं।
लाहौर इमीग्रेशन पार करते हुए मुझे पहला धक्का लगा। एक लाइन पाकिस्तानी के पासपोर्टधारियों की थी। दूसरी लाइन में विदेशी। पर भारतीयों के लिए एक अलग लाइन थी। विदेशियों में भी भारतियों का स्थान अलग था। जाहिर है, इस अलगाव का मकसद मैत्री नहीं है।

‘‘आपके पाकिस्तानी आगमन का उद्देश्य ?’’ इमीग्रेशन अफसर का प्रश्न।
‘‘मैं अध्यापक और पत्रकार हूँ। आपके देश में घूमने आया हूँ। कुछ इन्टरव्यू लेने की भी कोशिश करूँगा।’’
मेरे पासपोर्ट में पाकिस्तानी वीसा पर स्टैम्प लगा हुआ था। इसलिए पुलिस में रिपोर्ट करने की जरूरत नहीं थी।
यह बात बड़ी राहत देती है। पाकिस्तान के पहले दौरे में यह राहत नहीं मिली थी। मैं एक अन्तर्राष्ट्रीय खाद्य सेमिनार में आमन्त्रित था। न्यूयॉर्क को पाकिस्तानी कन्सुलेट जनरल ने वीसा दिया था। सरकारी खाद्य आपूर्ति संस्था की राजनीति पर बोलने का आमन्त्रण था। पुलिस के पास रिपोर्ट करने की रिहाई दिलानेवाला स्टैम्प वीसा में उस बार नहीं था।
सेमिनार में बांग्लादेश से एक अर्थशास्त्रविद् भी आए हुए थे जिनका नाम मुझे अब याद नहीं। पर वे मुझसे उम्र में काफी छोटे थे। जैसा कि अक्सर हुआ करता है, अन्तरर्राष्ट्रीय सेमिनार में एक ही भाषा बंगालियों को जोड़ देती है। इसलिए भारत और बांग्लादेश के बंगाली एक-दूसरे के साथ लगे रहे।

हम दोनों को एक दिन सेमिनार से भागकर थाने में ‘‘रिपोर्ट’ करने जाना पड़ा। थाने में कान्स्टेबल के अलावा और कोई नहीं था। ‘‘अफसर निकले हैं, अभी आ जाएँगे।’’ एक घण्टे पर भी उनका ‘‘अभी’’ नहीं हुआ। हम लोग वहाँ से निकल पड़े। लौटते समय लाहौर के इमीग्रेशन अफसर ने मुझे रोक लिया।
‘‘आपने पुलिस में रिपोर्ट नहीं की ?’’ पूछा गया।
मैंने कहा, ‘‘थाने गया था। वहाँ कोई अफसर नहीं था। एक घण्टा इन्तजार कर चला आया।’’
जूनियर अफसर ने कहा, ‘‘हम आपको ऐसे छोड़ नहीं सकते। पुलिस से आपको यहाँ से जाने का अनुमिति-पत्र लाना होगा।’’
मैं सीनियर अफसर की शरण में गया। उसे समझाना पड़ा, पाकिस्तान आया हूँ। सेमिनार छोड़कर थाने में दौड़ने की समस्या के बारे में कहा। मैंने यह अभी बताया कि अभी न जा पाया तो दो दिनों का होटल का खर्च, थाने का चक्कर वगैरह-वगैरह कई तरह की परेशानी हो जाएगी।

उन्होंने जूनियर अफसर से कहा, ‘‘इन्हें जाने दो।’’ अपनी अनिच्छा को बिना छिपाए जूनियर अफसर ने मुझे छोड़ दिया।
इसमें पाकिस्तानियों का कोई कसूर नहीं। दोनों दूर के पड़ोसी राष्ट्रों के बीच हुए वीसा समझौता में यह साफ-साफ लिखा हुआ है कि भ्रमण के लिए हरेक आदमी को पुलिस रिपोर्ट करनी पड़ेगी।
अब तो हर साल दोनों ओर से करीब दस लाख से भी ज्यादा लोगों ने सीमा पार कर भारत-पाकिस्तान के बीच एक विशाल जन-सेतु का निर्माण कर दिया है। इनमें से नब्बे फीसदी मुसलमान हैं। बहुत से करीबी रिश्तेदारों से मिलने के लिए आमतौर पर मुसलमानों को वीसा दिया जाता है। हर रोज पाकिस्तान में इस्लामाबाद और कराची स्थित भारतीय दूतावास सात सौ से लेकर हजार की संख्या में वीसा जारी करता है। दिल्ली स्थित पाकिस्तानी दूतावास समेत बम्बई और हैदराबाद में पाकिस्तानी दूतावास भी हर रोज इतनी ही संख्या में वीसा जारी करता है।

भारतीय मुसलमानों को देश के विभिन्न राज्यों दिल्ली, बम्बई और हैदराबाद से आना पड़ता है। ये लोग आम हैसियत के होते हैं। होटल में रहने की इनकी औकात नहीं होती। शान्तिपथ का हरा-भरा लॉन इनका होटल हुआ करता है। हर रोज कुछेक सौ मुसलमान पाकिस्तानी दूतावास में जाते हैं। वीसा के लिए दरख्वास्त करते हैं। पर इनमें से सभी रिश्तेदारों से मिलने के उद्देश्य से पाक-यात्रा के लिए दरख्वास्त नहीं करते। बड़ी संख्या में ये व्यापारी व्यवसाय के लिए दरख्वास्त करते हैं और उनमें से भी कुछ माफिया एजेन्ट हुआ करते हैं।
कुछ-कुछ महिलाएँ ‘‘ड्रग’’ भी चोरी-छिपे ले जाती हैं। बुरका इन्हें छिपाने के बड़ा काम आता है।
इसलिए किसी भी उद्देश्य से हो, पाकिस्तान की यात्रा का अनुभव मुझे खूब याद है। इस्लामाबाद एयरपोर्ट से ‘‘हॉलिडे इन’’ होटल तक जाने के दौरान सड़क पर आमतौर पर देखे जाने वाले दो दृश्यों के अभाव ने मुझे हैरानी में डाल दिया।
एक, पन्द्रह किलोमीटर तक महिलाओं का न दिखना।
दूसरा, गरीबी !!

पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में महिलाएँ बहुत जरूरत न पड़ने पर सड़कों पर नहीं निकलेंगी, ऐसी मेरी धारणा थी। रजा शाही के जमाने में तेहरान में सड़कों, दुकानों, बाजारों, दफ्तरों में महिलाओं की उपस्थिति सहज, स्वाभाविक थी। पर खुमैनी के शासन में इसका ठीक उल्टा हुआ। महिलाओं का बाहर निकलना नियम की उदूली और इस्लाम विरोधी करार दिया गया। जनरल जिया उल हक़ ने पाकिस्तान में भी इस्लामी राज चालू किया। इसलिए सड़कों पर महिलाओं का नजर आना वर्जित हो गया। पर भारत में ऐसा नहीं है।
पर गरीबी ?
पाकिस्तान की राजधानी में गरीब क्यों नहीं हैं ?
मैं यह पता कर आया हूँ। पाकिस्तान की कुल आबादी का एक तिहाई या उससे भी कहीं अधिक लोग गरीबी की सीमा के नीचे रहने वाले हैं। फिर वे कहाँ हैं ? पाकिस्तान की ‘‘गरीबी की सीमा’’ और भारत की ‘‘गरीबी की सीमा’’ एक ही स्तर की हैं ? या फिर कोई ऊपर-नीचे ?      

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